Narendra Modi

12945/40 ....RO NO....

तरला रिव्यू : लेखन और अभिनय के सही मसालों से बनी जायकेदार फिल्म, हुमा कुरैशी का बेहतरीन अभिनय

0
112

मुंबई। हर कामयाब आदमी के पीछे एक औरत होती है और हर कामयाब औरत के पीछे एक कहानी। इसी कहानी को सरलता से दर्शाया गया है फिल्म तरला में, जो पद्मश्री से सम्मानित पाक कला में अव्वल शेफ और कुक बुक लेखिका तरला दलाल की जिंदगी पर आधारित है।

क्या है तरला की कहानी?
कहानी शुरू होती है पुणे से। तरला (हुमा कुरैशी) अपनी प्रोफेसर की चाल देखकर कहती हैं कि उनके चलने के अंदाज से पता चलता है, वह जीवन में कहीं आगे जाएंगी। तरला को भी कुछ करना है, लेकिन क्या, उसे पता नहीं है। इसी बीच उनकी शादी मुंबई के मिल में बतौर इंजीनियर काम करने वाले नलिन दलाल (शारिब हाशमी) से तय हो जाती है।

नलिन उसे इस बात का भरोसा दिलाते हैं कि शादी के बाद वह अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं। 12 साल बीत जाते हैं। तरला तीन बच्चों की मां बन जाती है। उसे अहसास होता है कि उसने तो जीवन में कुछ किया ही नहीं। एक दिन शाकाहारी तरला, नलिन को नॉनवेज खाते देख लेती है। वह नलिन के लिए ऐसा शाकाहारी खाना बनाती हैं, जिसकी खुशबू मांसाहारी व्यंजनों जैसी होती है।

जैसे मुर्ग मुसल्लम बन जाता है बटाटा मुसल्लम, चिकन 65 बन जाता है गोभी 65। पड़ोस में रहने वाली आंटी (भारती आचरेकर) तरला से कहती है कि वह उसकी बेटी काव्या को खाना बनाना सिखा दे, क्योंकि उसकी शादी तय होने वाली है। तरला की पनीर कोफ्ता की रेसिपी से काव्या अपनी सास का दिल जीत लेती है।

उसकी सास उसे शादी के बाद नौकरी करने की इजाजत दे देती है। शादी में कई मांएं तरला से उनकी बेटियों के लिए खाना बनाने का ट्यूशन देने के लिए कहती हैं। कुकिंग क्लास से शुरू हुआ तरला का सफर टीवी पर कुकिंग शो तक पहुंच जाता है। क्या यह सफर आसान था? यकीनन नहीं।

कैसा है तरला का स्क्रीनप्ले, संवाद और अभिनय?
निर्देशक पीयूष गुप्ता ने गौतम वेद के साथ मिलकर फिल्म का सहलेखन भी किया है। कहानी की खास बात यह है कि इसमें बिना वजह का कोई ड्रामा नहीं दिखाया गया है। आंखों में कुछ करने का सपना सजाए एक साधारण सी लड़की कैसे छोटे-छोटे कदम बढ़ाकर अपना असाधारण करियर एक ऐसे क्षेत्र में बनाती है, जिसे कला ही नहीं माना जाता है, वह प्रेरणात्मक है।

तरला की कहानी में लेखकों ने उनके सबसे बड़े सपोर्ट सिस्टम नलिन को खोने नहीं दिया। एक सपोर्टिव पति से लेकर, पत्नी के ज्यादा कमाने और घर का ध्यान न दे पाने पर मेल ईगो की झलक दिखाने वाले सारे पहलुओं पर ध्यान दिया है। फिल्म धीमी गति से चलती है, लेकिन पीयूष के कसे हुए निर्देशन की वजह से बोरियत नहीं होती है।

तरला ने खाना बनाने के काम को कला का नाम दिया था। उन्होंने साबित किया था कि इस काम से न केवल पैसे कमाए जा सकते हैं, बल्कि लोगों का दिल भी जीता जा सकता है। ऐसे में एक गृहिणी से सेलिब्रिटी शेफ बनने के तरला के सफर को थोड़ा विस्तार से दिखाने की जरूरत थी, जिसे तेजी से समेट दिया गया।

खुद की मां का यह कहना कि हीरोइनगीरी बाहर छोड़कर आया कर… बाल कटवाकर बंदरिया हो गई… या पड़ोसन का कहना कि इतना कर लिया, अब क्या कैलाश पर्वत चढ़ेगी, थोड़ा घर पर ध्यान दे, बच्चे बड़े हो रहे हैं… न केवल एक बहू-पत्नी और मां को अपराधबोध करवाता है, बल्कि अनकहे तरीके से पुरुषों के घर के कामों में हाथ न बंटाने की सोच के कारण महिला पर बढ़ते दबाव की ओर इशारा करता है।

पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक के छोटे-छोटे पल, जिसमें सिग्नल पाने के लिए नलिन का एंटीना ठीक करना, अंगुलियों से डायल घुमाकर फोन लगाना, टाइपराइटर इन सभी को सिनेमैटोग्राफर सालू के थामस ने कैमरे में कैद किया है।

हुमा न केवल तरला जैसी लगी हैं, बल्कि उनकी जिंदगी को जीया है। कई सिनेमाई लिबर्टी के बीच कुछ कॉमिक दृश्यों में वह ड्रामैटिक हो जाती हैं, लेकिन उसे अनदेखा किया जा सकता है।

कभी तरला की हारती हिम्मत पर साथ देना, तो कभी-कभार मेल ईगो से ग्रसित हो जाना, इन भावनाओं को शारिब हाशमी ने बहुत सरलता से निभाया है। भारती आचरेकर छोटे से किरदार में याद रह जाती हैं। यहीं तो है जिंदगी… और पल ये सुलझे-सुलझे, उलझे हैं क्यों… कर्णप्रिय और कहानी से साथ सुसंगत है।

कलाकार: हुमा कुरैशी, शारिब हाशमी, भारती आचरेकर आदि।

निर्देशक: पीयूष गुप्ता

अवधि: दो घंटा सात मिनट

रेटिंग: तीन

OTT प्लेटफार्म: जी5